हौसला बढ़ाते स्वामी विवेकानंद जी के प्रेरक अलमोल विचार: दोस्तों इस आर्टिकल में हौसला बढ़ाते स्वामी विवेकानंद जी के प्रेरक अलमोल विचार आपसे शेयर करने जा रहा हूँ
तो चलिए शुरू करते हैं पहले अनमोल वचन से
जब तुम कोई कर्म करो, तब अन्य किसी बात का विचार ही मत करो उसे एक उपासना के तरह करो और उस समय तक के लिए उसमें अपना सारा तन-मन लगा दो।
उठो, जागो और जब तक तुम अपने अंतिम ध्येय तक नहीं पहुँच जाते, तब तक चैन न लो। उठो, जागो—निर्बलता के उस मोह से जाग जाओ! वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं है। आत्मा अनंत, सर्वशक्तिसंपन्न और सर्वज्ञ है। इसलिए उठो, अपने वास्तविक रूप को प्रकट करो।
मानव-स्वभाव की एक विशेष कमजोरी यह है कि वह स्वयं अपनी ओर कभी नजर नहीं डालता। वह तो सोचता है कि मैं भी राजा के सिहासन पर बैठने के योग्य हूँ और यदि मान लिया जाए कि वह है भी, तो सबसे पहले उसे यह दिखा देना चाहिए कि वह अपनी वर्तमान स्थिति का कर्तव्य भली-भाँति कर चुका है ऐसा होने पर ही उसके सामने उच्चतर कर्तव्य आएँगे।
हम चाहे जितना भी प्रयत्न क्यों न करें, ऐसा कोई कर्म नहीं हो सकता, जो संपूर्णतः पवित्र हो अथवा संपूर्णतः अपवित्र, यदि ‘पवित्रता’ या ‘अपवित्रता’ से हमारा तात्पर्य है, अहिंसा या हिंसा! बिना दूसरों को हानि पहुँचाए हम साँस तक नहीं ले सकते। अपने भोजन का प्रत्येक ग्रास हम किसी दूसरे के मुँह से छीनकर खाते हैं। यहाँ तक कि हमारा अस्तित्व भी दूसरे प्राणियों के जीवन को विनष्ट करके संभव होता है। चाहे मनुष्य हो, पशु हो अथवा कीटाणु, किसी-न-किसी को हटाकर ही हम अपना अस्तित्व स्थिर रखते हैं।
इन संसार में हमें कई प्रकार के मनुष्य मिलेंगे। प्रथम, देव-मानव जो पूर्ण आत्मत्यागी हैं, अपनी जीवन की भी बाजी लगाकर दूसरों का भला करते हैं, ये सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। यदि किसी देश में ऐसे सौ मनुष्य भी हों तो उस देश को फिर किसी बात की चिंता नहीं। परंतु खेद है, ऐसे लोग बहुत कम हैं!
संसार के प्रति ऐसा कोई भी उपकार नहीं किया जा सकता, जो चिरस्थायी हो। यदि ऐसा कभी संभव होता तो यह संसार इस रूप में कभी न रहता, जैसा उसे हम आज देख रहे हैं। हम किसी मनुष्य की भूख अल्प समय के लिए भले ही शांत कर दें, परंतु बाद में वह फिर भूखा हो जाएगा। किसी व्यक्ति को हम जो भी कुछ दे सकते हैं, वह क्षणिक ही होता है। सुख और दुःख के इस संतत ज्वर का कोई भी सदा के लिए उपचार नहीं कर सकता।
सभ्यता जितनी नीची होती है, इंद्रियों की शक्ति उतनी अधिक होती है!—जीव जितना ऊँचा होता है, इंद्रिय-सुख का आकर्षण उतना ही कम होता है! कुत्ता भोजन खा सकता है, पर तत्त्वदर्शन पर विचार करने के उद्भुत आनंद को नहीं समझ सकता। तुम बुद्धि द्वारा जिस अनूठे आनंद को प्राप्त करते हो, वह उससे वंचित रहता है। इंद्रिय-सुख बड़ी वस्तु है। पर उससे भी बड़ी वस्तु वह सुख है, जो बुद्धि से प्राप्त होता है।
दूसरों की आलोचना करने में हम सदा यह मूर्खता करते हैं। कि किसी एक विशेष गुण को हम अपने जीवन का सर्वस्व समझ लेते हैं और उसी को मापदंड मानकर दूसरों के दोषों को खोजने लगते हैं। इस प्रकार दूसरों को पहचानने में हम भूलें कर बैठते हैं।
जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसके ऊपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। उसके लिए किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। उसका मन स्वतंत्र हो जाता है।
बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो स्वयं होते तो बड़े अज्ञानी हैं, परंतु फिर भी अहंकार से अपने को सर्वज्ञ समझते हैं इतना ही नहीं, बल्कि दूसरों को भी अपने कंधों पर ले जाने को तैयार रहते हैं। इस प्रकार अंधा अंधे का अगुआ बन दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ते हैं।
अपने चारों ओर हम जो अशुभ तथा क्लेश देखते हैं, उन सबका केवल एक ही मूल कारण है-अज्ञान! मनुष्य को ज्ञान दो, शिक्षित बनाओ, तभी संसार से दुःख का अंत हो पाएगा, अन्यथा नहीं।
इच्छा परिवर्तन के द्वारा सबल नहीं की जा सकती। वह तो उससे दुर्बल और पराधीन बन जाती है। परंतु हमें सदैव आत्मसात् करते रहना चाहिए। आत्मसात् करते रहने से इच्छा-शक्ति बल पाती है। संसार में इच्छा-शक्ति ऐसी शक्ति है, जिसकी प्रशंसा हम जाने या अनजाने में करते हैं। इच्छा-शाक्ति की अभिव्यक्ति करने के कारण ही सती को संसार महान् मानता है!
यह सोचना कि मेरे ऊपर कोई निर्भर है तथा मैं किसी का भला कर सकता हूँ, अत्यंत दुर्बलता का चिह्न है। यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है और इस आसक्ति से ही समस्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। हमें अपने मन को यह भलीभाँति समझा देना चाहिए कि इस संसार में हमारे ऊपर कोई भी निर्भर नहीं है!
जो व्यक्ति अपने प्रति घृणा करने लगता है, उसके पतन का द्वार खुल चुका है और यही बात राष्ट्र के सम्बंध में भी सत्य है।
एकाग्रता समस्त ज्ञान का सार है, उसके बिना कुछ नहीं किया जा सकता! साधारण मनुष्य अपनी विचार-शक्ति का नब्बे प्रतिशत अंश व्यर्थ नष्ट कर देता है और इसलिए वह निरंतर भारी भूलें करता रहता है। प्रशिक्षित मनुष्य अथवा मन कभी कोई भूल नहीं करता। जब मन एकाग्र होता है और पीछे मोड़कर स्वयं पर ही केंद्रित कर दिया जाता है, तो हमारे भीतर जो भी है, वह हमारा स्वामी न रहकर हमारा दास बन जाता है।
स्वामी विवेकानंद अलमोल विचार
स्वामी विवेकानंद अलमोल विचार
आत्मोन्नति का अर्थ बुद्धि का विकास समझने की भूल न कर बैठना। किसी मनुष्य की बुद्धि कितनी ही विशाल क्यों न हो, पर आध्यात्मिक क्षेत्र में, संभव है, वह एक बालक या उससे भी गया-बीता हो।
अधिकांश लोग तो भेड़ों के झुंड के समान हैं। अगर आगे की एक भेड़ गड्ढे में गिरती है तो पीछे की दूसरी सब भेड़ें भी गिरकर अपनी गर्दन तोड़ लेती हैं। इसी तरह समाज का कोई मुखिया जब कोई बात कर बैठता है तो दूसरे लोग भी उसका अनुकरण करने लगते हैं और यह नहीं सोचते कि वे क्या कर रहे हैं।
केवल वही मनुष्य प्रकृति से पूरा-पूरा लाभ उठा सकता है, जो किसी वस्तु में अपने मन को अपनी समस्त शक्ति के साथ लगा देने के साथ ही अपने को स्वेच्छा से-जब उससे अलग हो जाना चाहिए तब-उससे अलग कर लेने की भी सामर्थ्य रखता है।
कामना के वटवृक्ष को अनासक्ति के कुठार के द्वारा काट डालो, ऐसा करने पर वह बिलकुल नष्ट हो जाएगा। वह तो एक भ्रम-मात्र है और कुछ नहीं! ‘जिनका मोह और शोक चला गया है, जिन्होंने संग दोषों को जीत लिया है, केवल वे ही’ आजाद ‘या मुक्त हैं!’
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समस्त मानव-ज्ञान अनुभव से उत्पन्न होता है, अनुभव के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से हम कुछ भी जान नहीं सकते। हमारी सारी तर्कना सामान्यीकृत अनुभव पर आधारित है, हमारा सारा ज्ञान सामंजस्यपूर्ण अनुभव ही है।
हमें या तो आगे बढ़ना होगा या पीछे हटना होगा-हमें उन्नति करते रहना होगा, नहीं तो हमारी अवनति अपने-आप होती जाएगी। हमारे पूर्वपुरुषो ने प्राचीनकाल में बहुत बड़े-बड़े काम किए हैं, पर हमें उनकी अपेक्षा भी उच्चतर जीवन का विकास करना होगा और उनकी अपेक्षा और भी महान् कार्यों की ओर अग्रसर होना पड़ेगा।
आत्मा के ज्ञान बिना जो कुछ भौतिक ज्ञान अर्जित किया जाता है, वह सब आग में घी डालने के समान है।
केवल वही व्यक्ति कर्म से परे है, जो संपूर्ण रूप से आत्मतृप्त है, जिसे आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी कामना नहीं, जिसका मन आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी गमन नहीं करता, जिसके लिए आत्मा कि सर्वस्व है! शेष सभी व्यक्तियों को तो कर्म अवश्य ही करना पड़ेगा।
आशा का संपूर्ण रूप से त्याग कर दो, यही है सर्वोच्च अवस्था। आशा किस बात के लिए करें? आशा का बंधन छिन्न कर डालो अपनी आत्मा का ही आश्रय लो, स्थिर होओ, जो करो, सब भगवान् के चरणों में अर्पण कर दो, कितु उसमें किसी प्रकार का कपट मत करो!
यदि तुम्हारा ईश्वर में विश्वास है, तो विश्वास करो कि ये सब चीजें-जिन्हें तुम अपना समझते हो-वास्तव में ईश्वर की हैं।
अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवं हृदय तथा मन को उन्नत बनानेवाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित शक्ति को प्रकट कर देना-आत्मा को जाग्रत कर देना। प्रत्येक मनुष्य के भीतर शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है। भिन्न-भिन्न कर्म इन महान् शक्तियों को जाग्रत् करने तथा बाहर प्रकट कर देने के लिए आघात सदृश हैं।
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