Bhagwat Geeta Shlok for Students, Popular Bhagwat Geeta Shlok for Students in Hindi : ये आर्टिकल खासकर के हमारे विद्यार्थी भाइयों के लिए लिए है। इस आर्टिकल में मेने स्टूडेंट के लिए भगवत गीता के समुंदर से Top 10 Shlokas (टॉप 10 श्लोक) चयनित किए हैं।
जो की एक स्टूडेंट के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। हर श्लोक में मेने चैप्टर और श्लोक नंबर लिखा हुआ है अगर आपको कोई भी श्लोक समझने में कोई कठिनाई आती है तो आप भगवत गीता पुस्तक में इन श्लोको को देख सकते है और अच्छे से समझ सकते है। तो चलिए शुरू करते है पहले श्लोक से
Bhagwat Geeta Shlok
-1-
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति।।
(अध्याय 3, श्लोक 33)
अर्थ: ज्ञानी पुरुष अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है, क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। भला दमन से क्या हो सकता है ?
अर्थात: व्यक्ति को अपने स्वभाव के अनुसार काम चुननी चाहिए। वह काम जिसमें, उसे खुशी मिलती हो। हम अपनी प्रकृति और क्षमता के अनुसार काम करें। अपने अस्तित्व की जरूरत के अनुसार काम करें। गीता में यह भी लिखा है कि जो काम आपके हाथ में इस समय है, यानी वर्तमान कर्म उससे अच्छा कुछ नहीं है। उसे पूर्ण करो।
-2-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन:।।
(अध्याय 4, श्लोक 34)
अर्थ: तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।
अर्थात: शिक्षा और ज्ञान उसी को मिलता है, जिसमें जिज्ञासा हो। सम्मान और विनयशीलता से सवाल पूछने से ज्ञान मिलता है। जो जानकार हैं वे कोई भी बात तभी बताएंगे जब आप सवाल करेंगे। किताबों में लिखी या सुनी बातों को तर्क पर तौलना जरूरी है। जो शास्त्रों में लिखा, जो गुरु से सीखा है और जो अनुभव रहा है, इन तीनों में सही तालमेल से ज्ञान मिलता है।
-3-
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
(अध्याय 2, श्लोक 62)
अर्थात: विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए कोशिश करें कि विषयाशक्ति से दूर रहते हुए कर्म में लीन रहा जाए।
-4-
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(अध्याय 2, श्लोक 63)
अर्थ: क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है , तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव कूप में पुनः गिर जाता है।
अर्थात: क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है। इससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।
-5-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(अध्याय 2, श्लोक 47)
अर्थ: तुम्हें अपना कार्य करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।
-6-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(अध्याय 3, श्लोक 21)
अर्थ: श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, आम इंसान भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।
-7-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
(अध्याय 6, श्लोक 17)
अर्थ: जो सही मात्रा में भोजन करने वाला और सही समय पर नींद लेने वाला है, जिसकी दिनचर्या नियमित है, उस व्यक्ति में योग यानी अनुशासन आ जाता है। ऐसा व्यक्ति दुखों और रोगों से दूर रहता है। सात्विक भोजन सेहत के लिए सर्वोत्तम है। ये जीवन, प्राणशक्ति, बल, आनंद और उल्लास बढ़ाता है।
-8-
मास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु: खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
(अध्याय 2, श्लोक 14)
अर्थ: सुख – दुख का आना और चले जाना सर्दी-गर्मी के आने-जाने के समान है। सहन करना सीखें। गीता में लिखा है – जिसने बुरी इच्छाओं और लालच को छोड़ दिया है, उसे शान्ति मिलती है। कोई भी इच्छाओं से मुक्त नहीं हो सकता। पर इच्छा की गुणवत्ता बदलनी होती है।
-9-
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: ।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।
(अध्याय 2, श्लोक 56)
अर्थ: दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है।
-10-
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी
(अध्याय 2, श्लोक 70)
अर्थ: जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले, समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं ।
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धन्यवाद
जय श्री कृष्णा
Bhut hi badhiya shloks hai. bhut bhut dhanaywaad.